Episodes

  • Ye Log | Naresh Saxena
    Feb 20 2025

    ये लोग | नरेश सक्सेना


    तूफान आया था

    कुछ पेड़ों के पत्ते टूट गए हैं

    कुछ की डालें

    और कुछ तो जड़ से ही उखड़ गए हैं

    इनमें से सिर्फ़

    कुछ ही भाग्यशाली ऐसे बचे

    जिनका यह तूफान कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया

    ये लोग ठूँठ थे।


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    2 mins
  • Kya Bhoolun Kya Yaad Karun Main | Harivansh Rai Bachchan
    Feb 19 2025

    क्या भूलूं क्या याद करूं मैं | हरिवंश राय बच्चन


    अगणित उन्मादों के क्षण हैं,

    अगणित अवसादों के क्षण हैं,

    रजनी की सूनी की घडियों को किन-किन से आबाद करूं मैं!

    क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!


    याद सुखों की आसूं लाती,

    दुख की, दिल भारी कर जाती,

    दोष किसे दूं जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूं मैं!

    क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!


    दोनो करके पछताता हूं,

    सोच नहीं, पर मैं पाता हूं,

    सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आबाद करूं मैं!

    क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!


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    2 mins
  • Manch Se | Vaibhav Sharma
    Feb 18 2025

    मंच से | वैभव शर्मा

    मंच के एक कोने से शोर उठता है और रोशनी भी
    सामने बैठी जनता डर से भर जाती है।
    मंच से बताया जाता है शांती के पहले जरूरी है क्रांति
    तो सामने बैठी जनता जोश से भर जाती है।
    शोर और रोशनी की ओर बढ़ती है।
    डरी हुई जनता
    खड़े होते हैं हाथ और लाठियां
    खड़ी होती है डरी हुई भयावह जनता
    डरी हुई भीड़ बड़ी भयानक होती है।
    डरे हुए लोग अपना डर मिटाने हेतु
    काट सकते हैं अपने ही अंग
    डर मिटाने के लिए अंग काटने का चलन आया है।
    मंच के दूसरे कोने से अटृहास
    खून की बौछार
    शोर खूंखार, भयावह आकृतियां अपार
    जनता डरी और सहमी, खड़ी हाथ में लिए
    तीखे नुकीले कटीले हथियार
    डरी हुई जनता, अंगो को काटकर
    डर को छांट छांट कर अलग करती
    फिर भी डरा करती, निरन्तर
    डरी हुई जनता, मंच के नीचे से
    ऊपर वालों को तकती
    पर उनके पास ना दिखे उसको कोई हथियार
    मंच पे दिखे, सुशील मुखी, सुन्दर, चरित्रवान
    एवं मोहक कलाकार
    डरी सहमी, खून से लथपथ जनता
    देखती शोर और अट्हास के बीच
    समूचे निगले जाते अपने अंग हज़ार।

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    3 mins
  • Bacchu Babu | Kailash Gautam
    Feb 17 2025

    बच्चू बाबू | कैलाश गौतम


    बच्चू बाबू एम.ए. करके सात साल झख मारे

    खेत बेंचकर पढ़े पढ़ाई, उल्लू बने बिचारे


    कितनी अर्ज़ी दिए न जाने, कितना फूँके तापे

    कितनी धूल न जाने फाँके, कितना रस्ता नापे


    लाई चना कहीं खा लेते, कहीं बेंच पर सोते

    बच्चू बाबू हूए छुहारा, झोला ढोते-ढोते


    उमर अधिक हो गई, नौकरी कहीं नहीं मिल पाई

    चौपट हुई गिरस्ती, बीबी देने लगी दुहाई


    बाप कहे आवारा, भाई कहने लगे बिलल्ला

    नाक फुला भौजाई कहती, मरता नहीं निठल्ला


    ख़ून ग़‍रम हो गया एक दिन, कब तक करते फाका

    लोक लाज सब छोड़-छाड़कर, लगे डालने डाका


    बड़ा रंग है, बड़ा मान है बरस रहा है पैसा

    सारा गाँव यही कहता है बेटा हो तो ऐसा ।

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    2 mins
  • Maut Ke Farishtey | Abdul Bismillah
    Feb 16 2025

    मौत के फ़रिश्ते | अब्दुल बिस्मिल्लाह


    अपने एक हाथ में अंगारा

    और दूसरे हाथ में ज़हर का गिलास लेकर


    जिस रोज़ मैंने

    अपनी ज़िंदगी के साथ


    पहली बार मज़ाक़ किया था

    उस रोज़ मैं


    दुनिया का सबसे छोटा बच्चा था

    जिसे न दोज़ख़ का पता होता


    न ख़ुदकुशी का

    और भविष्य जिसके लिए


    माँ के दूध से अधिक नहीं होता

    उसी बच्चे ने मुझे छला


    और मज़ाक़ के बदले में

    ज़िंदगी ने ऐसा तमाचा लगाया


    कि गिलास ने मेरे होंठों को कुचल डाला

    और अंगारा


    उस ख़ूबसूरत पोशाक के भीतर कहीं खो गया


    जिसे रो-रो कर मैंने


    ज़माने से हासिल किया था

    इस तरह एक पूरा का पूरा हादसा


    निहायत सादगी के साथ वजूद में आया

    और दुनिया


    किसी भयानक खोह की शक्ल में बदलती चली गई

    मेरा विषैला जिस्म


    शोलों से घिरता चला गया

    ज़िंदगी


    बिगड़े हुए ज़ख़्म की तरह सड़ने लगी

    और काँच को तरह चटखता हुआ मैं


    एक कोने में उगी हुई दूब को देखता रहा

    जो उस खोह में हरी थी


    वह मेरे चड़चड़ाते हुए मांसपिंड में

    ताक़त पैदा करती रही


    और आग हो गई मेरी इकाई में

    यह आस्था


    कि मौत के फ़रिश्ते

    सिर्फ़ हारे हुए लोगों से ख़ुश होते हैं


    उनसे नहीं

    जो ज़िंदगी को


    असह्म बदबू के बावजूद

    प्यार करते हैं।


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    2 mins
  • Torch | Manglesh Dabral
    Feb 15 2025

    टॉर्च | मंगलेश डबराल


    मेरे बचपन के दिनों में

    एक बार मेरे पिता एक सुन्दर-सी टॉर्च लाए

    जिसके शीशे में खाँचे बने हुए थे

    जैसे आजकल कारों की हेडलाइट में होते हैं।

    हमारे इलाके में रोशनी की वह पहली मशीन थी

    जिसकी शहतीर एक

    चमत्कार की तरह रात को दो हिस्सों में बाँट देती थी

    एक सुबह मेरे पड़ोस की एक दादी ने पिता से कहा

    बेटा, इस मशीन से चूल्हा जलाने के लिए थोड़ी सी आग दे दो

    पिता ने हँस कर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ़ उजाला होता है

    इसे रात होने पर जलाते हैं

    और इससे पहाड़ के ऊबड़-खाबड़ रास्ते साफ़ दिखाई देते हैं

    दादी ने कहा उजाले में थोड़ा आग भी होती तो कितना अच्छा था

    मुझे रात से ही सुबह का चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है

    पिता को कोई जवाब नहीं सुझा वे ख़ामोश रहे देर तक

    इतने वर्ष बाद वह घटना टॉर्च की वह रोशनी

    आग माँगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती है

    हमारे वक्त की विडम्बना में कविता की तरह।


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    3 mins
  • Suitcase : New York Se Ghar Tak | Vishwanath Prasad Tiwari
    Feb 14 2025

    सूटकेस : न्यूयर्क से घर तक | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी


    "इस अनजान देश में

    अकेले छोड़ रहे मुझे"

    मेरे सूटकेस ने बेबस निगाहों से देखा

    जैसे परकटा पक्षी

    देखता हो गरुड़ को

    उसकी भरी आँखों में क्या था

    एक अपाहिज परिजन की कराह

    या किसी डुबते दोस्त की पुकार

    कि उठा लिया उसे

    जिसकी मुलायम पसलियां टूट गई थीं

    हवाई यात्रा के मालामाल बक्सों बीच

    कमरे से नीचे लाया

    जमा कर दिया उसे होटल के लॉकरूम में

    इस बुरी नीयत के साथ

    कि छोड़ दूँगा यहीं

    यह अर्थहीन अस्थिपंजर

    मगर चलते वक्त हवाई अड्डे

    फिर उठा लिया उसे

    दो डॉलर चुकाकर

    जैसे कक्षा दो के अपने पुराने सहपाठी को

    जिसकी कीमत अब दो कौड़ी भी नहीं रह गई थी

    फिर नीयत खोट हुई

    हवाई अड्डे पर उसे छोड़ देने की

    मगर उसकी डबडबाई आकुल आँखें

    उस पिता जैसी लगीं

    जो नब्बे पार की उम्र में

    अकेले पड़े हों गाँव में

    मुझे लगा

    अभी खतरे के साइरन बजेंगे

    घेर लेंगे इसे सैनिक और जासूस

    रेशा-रेशा उधेड देंगे इसका

    जो एक कलाकृति था अपनी जवानी में

    उतरा जब दिल्ली हवाई अडडे

    उसकी पीठ और पेट

    चिपक गए थे एक में

    बदलू मुसहर की तरह

    जो भूख से भरा या मलेरिया से

    इस पर बरसों बहस चली थी

    मीडिया और संसद में

    दिल्ली में उससे छुड़ा लेना चाहता था पिंड

    जो चार बार विदेश यात्राओं में सहयात्री रहा

    मगर आखिर वह आ ही गया मेरे साथ गोरखपुर

    उस गाय की तरह

    जो गाहक के हाथ से पगहा झटककर

    लौट आई हो अपने पुराने खूटे पर

    और अब, वह मेरे पुराने सामानों बीच

    विजयी-सा मुस्करा रहा

    चुनौती देता और पूछता मुझसे

    "क्या आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी है

    उन्हें पीछे छोड़ देना

    जिनके पास भाषा नहीं है?"


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    3 mins
  • Aangan Gayab Ho Gaya | Kailash Gautam
    Feb 13 2025

    आँगन गायब हो गया | कैलाश गौतम


    घर फूटे गलियारे निकले आँगन गायब हो गया

    शासन और प्रशासन में अनुशासन ग़ायब हो गया ।


    त्यौहारों का गला दबाया

    बदसूरत महँगाई ने

    आँख मिचोली हँसी ठिठोली

    छीना है तन्हाई ने

    फागुन गायब हुआ हमारा सावन गायब हो गया ।


    शहरों ने कुछ टुकड़े फेंके

    गाँव अभागे दौड़ पड़े

    रंगों की परिभाषा पढ़ने

    कच्चे धागे दौड़ पड़े

    चूसा ख़ून मशीनों ने अपनापन ग़ायब हो गया ।


    नींद हमारी खोई-खोई

    गीत हमारे रूठे हैं

    रिश्ते नाते बर्तन जैसे

    घर में टूटे-फूटे हैं

    आँख भरी है गोकुल की वृंदावन ग़ायब हो गया ।


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    2 mins