Pratidin Ek Kavita

By: Nayi Dhara Radio
  • Summary

  • कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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Episodes
  • Bacchu Babu | Kailash Gautam
    Feb 17 2025

    बच्चू बाबू | कैलाश गौतम


    बच्चू बाबू एम.ए. करके सात साल झख मारे

    खेत बेंचकर पढ़े पढ़ाई, उल्लू बने बिचारे


    कितनी अर्ज़ी दिए न जाने, कितना फूँके तापे

    कितनी धूल न जाने फाँके, कितना रस्ता नापे


    लाई चना कहीं खा लेते, कहीं बेंच पर सोते

    बच्चू बाबू हूए छुहारा, झोला ढोते-ढोते


    उमर अधिक हो गई, नौकरी कहीं नहीं मिल पाई

    चौपट हुई गिरस्ती, बीबी देने लगी दुहाई


    बाप कहे आवारा, भाई कहने लगे बिलल्ला

    नाक फुला भौजाई कहती, मरता नहीं निठल्ला


    ख़ून ग़‍रम हो गया एक दिन, कब तक करते फाका

    लोक लाज सब छोड़-छाड़कर, लगे डालने डाका


    बड़ा रंग है, बड़ा मान है बरस रहा है पैसा

    सारा गाँव यही कहता है बेटा हो तो ऐसा ।

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    2 mins
  • Maut Ke Farishtey | Abdul Bismillah
    Feb 16 2025

    मौत के फ़रिश्ते | अब्दुल बिस्मिल्लाह


    अपने एक हाथ में अंगारा

    और दूसरे हाथ में ज़हर का गिलास लेकर


    जिस रोज़ मैंने

    अपनी ज़िंदगी के साथ


    पहली बार मज़ाक़ किया था

    उस रोज़ मैं


    दुनिया का सबसे छोटा बच्चा था

    जिसे न दोज़ख़ का पता होता


    न ख़ुदकुशी का

    और भविष्य जिसके लिए


    माँ के दूध से अधिक नहीं होता

    उसी बच्चे ने मुझे छला


    और मज़ाक़ के बदले में

    ज़िंदगी ने ऐसा तमाचा लगाया


    कि गिलास ने मेरे होंठों को कुचल डाला

    और अंगारा


    उस ख़ूबसूरत पोशाक के भीतर कहीं खो गया


    जिसे रो-रो कर मैंने


    ज़माने से हासिल किया था

    इस तरह एक पूरा का पूरा हादसा


    निहायत सादगी के साथ वजूद में आया

    और दुनिया


    किसी भयानक खोह की शक्ल में बदलती चली गई

    मेरा विषैला जिस्म


    शोलों से घिरता चला गया

    ज़िंदगी


    बिगड़े हुए ज़ख़्म की तरह सड़ने लगी

    और काँच को तरह चटखता हुआ मैं


    एक कोने में उगी हुई दूब को देखता रहा

    जो उस खोह में हरी थी


    वह मेरे चड़चड़ाते हुए मांसपिंड में

    ताक़त पैदा करती रही


    और आग हो गई मेरी इकाई में

    यह आस्था


    कि मौत के फ़रिश्ते

    सिर्फ़ हारे हुए लोगों से ख़ुश होते हैं


    उनसे नहीं

    जो ज़िंदगी को


    असह्म बदबू के बावजूद

    प्यार करते हैं।


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    2 mins
  • Torch | Manglesh Dabral
    Feb 15 2025

    टॉर्च | मंगलेश डबराल


    मेरे बचपन के दिनों में

    एक बार मेरे पिता एक सुन्दर-सी टॉर्च लाए

    जिसके शीशे में खाँचे बने हुए थे

    जैसे आजकल कारों की हेडलाइट में होते हैं।

    हमारे इलाके में रोशनी की वह पहली मशीन थी

    जिसकी शहतीर एक

    चमत्कार की तरह रात को दो हिस्सों में बाँट देती थी

    एक सुबह मेरे पड़ोस की एक दादी ने पिता से कहा

    बेटा, इस मशीन से चूल्हा जलाने के लिए थोड़ी सी आग दे दो

    पिता ने हँस कर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ़ उजाला होता है

    इसे रात होने पर जलाते हैं

    और इससे पहाड़ के ऊबड़-खाबड़ रास्ते साफ़ दिखाई देते हैं

    दादी ने कहा उजाले में थोड़ा आग भी होती तो कितना अच्छा था

    मुझे रात से ही सुबह का चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है

    पिता को कोई जवाब नहीं सुझा वे ख़ामोश रहे देर तक

    इतने वर्ष बाद वह घटना टॉर्च की वह रोशनी

    आग माँगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती है

    हमारे वक्त की विडम्बना में कविता की तरह।


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